top of page

अध्याय दस: विभूति योग

भगवान के अनन्त वैभवों की स्तुति द्वारा प्राप्त योग

इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने अपनी भव्य और दीप्तिमान महिमा का वर्णन किया है जिससे अर्जुन को भगवान में अपना ध्यान केन्द्रित करने में सहायता मिल सके। नौवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने भक्ति योग या प्रेममयी भक्ति की व्याख्या करते हुए अपने कुछ वैभवों का वर्णन किया था। यहाँ इस अध्याय में वे आगे अर्जुन के भीतर श्रद्धा भक्ति को बढ़ाने के प्रयोजनार्थ अपनी अनन्त महिमा का पुनः वर्णन करते हैं। इन श्लोकों को पढ़ने से आनन्द की अनुभूति होती है और इनका श्रवण करने से मन प्रफुल्लित हो जाता है।
श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे सृष्टि में प्रकट प्रत्येक अस्तित्व का स्रोत हैं। मनुष्यों में विविध प्रकार के गुण उन्हीं से उत्पन्न होते हैं। सात महर्षि, चार महान ऋषि और चौदह मनुओं का जन्म उनके मन से हुआ और बाद में संसार के सभी मनुष्य इनसे प्रकट हुए। जो यह जानते हैं कि सबका उद्गम भगवान हैं, वे अगाध श्रद्धा के साथ उनकी भक्ति में तल्लीन रहते हैं। ऐसे भक्त उनकी महिमा की चर्चा कर पूर्ण संतुष्टि एवं मानसिक शांति प्राप्त करते हैं और अन्य लोगों को भी जागृत करते हैं क्योंकि उनका मन उनमें एकीकृत हो जाता है। इसलिए भगवान उनके हृदय में बैठकर उन्हें दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं ताकि वे उन्हें सुगमता से प्राप्त कर सकें।
श्रीकृष्ण से यह सब सुनकर अर्जुन कहता है कि उसे पूर्ण रूप से भगवान की सर्वोच्च स्थिति का बोध हो गया है और वह यह घोषणा करता है कि भगवान श्रीकृष्ण संसार के परम स्वामी हैं। फिर वह भगवान से विनम्र अनुरोध करता है कि वे पुनः अपनी अनुपम महिमा का और अधिक से अधिक वर्णन करें जिसका श्रवण करना अर्जुन के लिए अमृत का सेवन करने के समान है। श्रीकृष्ण प्रकट करते हैं क्योंकि वे ही सभी का आदि, मध्य और अन्त हैं इसलिए सभी अस्तित्व उनकी शक्तियों की अभिव्यक्ति हैं। वे सौंदर्य, वैभव, शक्ति, ज्ञान और समृद्धि का अनन्त महासागर हैं। जब हम कहीं किसी असाधारण ज्योति को देखते हैं जो हमारी कल्पना को हर्षोन्माद कर देती है और हमें आनन्द में निमग्न कर देती है तब हमें उसे और कुछ न मानकर भगवान की महिमा का स्फुलिंग मानना चाहिए। वे ऐसे विद्युत गृह के समान हैं जहाँ से मानवजाति के साथ-साथ ब्रह्माण्ड में सभी पदार्थ अपनी ऊर्जा प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात शेष अध्याय में वे उन सभी श्रेष्ठ पदार्थों, व्यक्तित्वों और क्रियाओं का मनमोहक वर्णन करते हैं जो उनके विशाल वैभव को प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार से वे यह कह कर इस सुन्दर अध्याय का समापन करते हैं कि उन्होंने अभी तक अपनी जिस अनुपम महिमा का वर्णन किया है उससे उनकी अनन्त महिमा के महत्व का अनुमान नहीं लगाया जा सकता क्योंकि वे ही अनन्त ब्रह्माण्डों को अपने दिव्य स्वरूप के एक अंश के रूप में धारण किए हुए हैं। इसलिए हम मानवों को भगवान, जो सभी प्रकार के वैभवों का स्रोत हैं, उन्हें ही अपनी आराधना का लक्ष्य मानना चाहिए।

10.1

आनन्दमयी भगवान ने कहाः हे महाबाहु अर्जुन! अब आगे मेरे सभी दिव्य उपदेशों को पुनः सुनो। चूंकि तुम मेरे प्रिय सखा हो इसलिए मैं तुम्हारे कल्याणार्थ तुम्हें इन्हें प्रकट करूँगा।


10.2

न तो स्वर्ग के देवता और न ही महान ऋषि मेरी उत्पत्ति या वैभव को जानते हैं क्योंकि मैं ही सभी देवताओं और महान ऋर्षियों की उत्पत्ति का उद्गम हूँ।


10.3

वे जो मुझे अजन्मा, अनादि और समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी के रूप में जानते हैं, मनुष्यों में केवल वही मोह रहित और समस्त बुराइयों से मुक्त हो जाते हैं।


10.4 – 10.5

जीवों में विविध प्रकार के गुण जैसे-बुद्धि, ज्ञान, विचारों की स्पष्टता, क्षमा, सत्यता, इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण, सुख और दुख, जन्म-मृत्यु, भय, निडरता, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश और अपयश केवल मुझसे ही उत्पन्न होते हैं।


10.6

सप्त महर्षिगण और उनसे पूर्व चार महर्षि और चौदह मनु सब मेरे मन से उत्पन्न हुए हैं तथा संसार में निवास करने वाले सभी जीव उनसे उत्पन्न हुए हैं।


10.7

जो मेरी महिमा और दिव्य शक्तियों को वास्तविक रूप से जान लेता है वह अविचल भक्तियोग के माध्यम से मुझमें एकीकृत हो जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।


10.8

मैं समस्त सृष्टि का उद्गम हूँ। सभी वस्तुएँ मुझसे ही उत्पन्न होती हैं। जो बुद्धिमान यह जान लेता है वह पूर्ण दृढ़ विश्वास और प्रेमा भक्ति के साथ मेरी उपासना करता है।


10.9

मेरे भक्त अपने मन को मुझमें स्थिर कर अपना जीवन मुझे समर्पित करते हुए सदैव संतुष्ट रहते हैं। वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते हुए मेरे विषय में वार्तालाप करते हुए और मेरी महिमा का गान करते हुए अत्यंत आनन्द और संतोष की अनुभूति करते हैं।


10.10

जिनका मन सदैव मेरी प्रेममयी भक्ति में एकीकृत हो जाता है, मैं उन्हें दिव्य ज्ञान प्रदान करता हूँ जिससे वह मुझे पा सकते हैं।


10.11

उन पर करुणा करने के कारण मैं उनके हृदयों में वास करता हूँ और ज्ञान के प्रकाशमय दीपक द्वारा अंधकार जनित अज्ञान को नष्ट करता हूँ।


10.12 – 10.13

अर्जुन ने कहा-“आप परम पुरुषोत्तम भगवान, परमधाम, परम शुद्ध, अविनाशी भगवान, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। नारद, असित, देवल और व्यास जैसे महान ऋषि सभी इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझे यही सब बता रहे हैं।"


10.14

हे कृष्ण! मैं आपके द्वारा कहे गए सभी कथनों को पूर्णतया सत्य के रूप में स्वीकार करता हूँ। हे परम प्रभु! न तो देवता और न ही असुर आपके वास्तविक स्वरूप को समझ सकते हैं।


10.15

हे परम पुरुषोत्तम। आप सभी जीवों के उदगम् और स्वामी हैं, देवों के देव और ब्रह्माण्ड नायक हैं। वास्तव में केवल आप अकेले ही अपनी अचिंतनीय शक्ति से स्वयं को जानने वाले हो।


10.16 – 10.17

प्रभु कृपया विस्तारपूर्वक मुझे अपने दिव्य ऐश्वर्यों से अवगत कराएँ जिनके द्वारा आप समस्त संसार में व्याप्त होकर उनमें रहते हों। हे योग के परम स्वामी! मैं आपको ज्यादा अच्छे से कैसे जान सकता हूँ और कैसे आपका मधुर चिन्तन कर सकता हूँ। हे परम पुरुषोत्तम भगवान! ध्यानावस्था के दौरान मैं किन-किन रूपों में आपका स्मरण कर सकता हूँ।


10.18

हे जनार्दन! कृपया मुझे पुनः अपनी दिव्य महिमा, वैभवों और अभिव्यक्तियों के संबंध में विस्तृत रूप से बताएँ, मैं आपकी अमृत वाणी को सुनकर कभी तृप्त नहीं हो सकता।


10.19

आनन्दमय भगवान ने कहा! अब मैं तुम्हें अपनी दिव्य महिमा का संक्षिप्त वर्णन करूँगा। हे श्रेष्ठ कुरुवंशी! इस वर्णन का कहीं भी कोई अंत नहीं है।


10.20

विभूति योग मैं सभी जीवित प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मैं ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अन्त हूँ।


10.21

मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु हूँ, प्रकाशवान पदार्थों में सूर्य, मरूतों में मुझे मरीचि और नक्षत्रों में रात्रि का चन्द्रमा समझो।


10.22

मैं वेदों में सामवेद, देवताओं में स्वर्ग का राजा इन्द्र हूँ। इन्द्रियों के बीच में मन और जीवित प्राणियों के बीच चेतना हूँ।


10.23

रुद्रों में मुझे शंकर जानो, यक्षों में मैं कुबेर हूँ, वसुओं में मैं अग्नि हूँ और पर्वतों में मेरु हूँ।


10.24

हे अर्जुन! पुरोहितों में मुझे बृहस्पति जानो और सेना नायकों में मैं कार्तिकेय हूँ और सभी जलाशयों में समुद्र हूँ।


10.25

मैं महर्षियों में भृगु हूँ, ध्वनियों में दिव्य ओम हूँ। मुझे यज्ञों में जपने वाला पवित्र नाम समझो। अचल पदार्थों में मैं हिमालय हूँ।


10.26

वृक्षों में मैं बरगद का वृक्ष हूँ और देव ऋषियों में मैं नारद हूँ, गंधों में मैं चित्ररथ हूँ, सिद्ध पुरुषों में मैं कपिल मुनि हूँ।


10.27

अश्वों में मुझे उच्चैश्रवा समझो जो अमृत के लिए समुद्र मंथन के समय प्रकट हुआ था। हाथियों में मुझे गर्वित ऐरावत समझो और मनुष्यों में मैं राजा हूँ।


10.28

शस्त्रों में मैं वज्र हूँ और गायों में कामधेनु हूँ, सन्तति के समस्त कारणों में मैं प्रेम का देवता कामदेव और सर्पो में वासुकि हूँ।


10.29

विभूति योग अनेक फणों वाले सों में मैं अनन्त हूँ, जलचरों में वरुण हूँ, पितरों में अर्यमा हूँ और नियमों के नियामकों में मैं मृत्यु का देवता यमराज हूँ।


10.30

दैत्यों में मैं प्रह्लाद हूँ और दमनकर्ताओं में मैं काल हूँ। पशुओं में मुझे सिंह मानो और पक्षियों में मुझे गरूड़ जानो।


10.31

पवित्र करने वालों में मैं वायु हूँ और शस्त्र चलाने वालों में मैं भगवान श्रीराम हूँ, जलीय जीवों में मगर और बहती नदियों में गंगा हूँ।


10.32

हे अर्जुन! मुझे समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अंत जानो। सभी विद्याओं में मैं आध्यात्म विद्या हूँ और सभी तर्कों का मैं तार्किक निष्कर्ष हूँ।


10.33

मैं सभी अक्षरों में प्रथम अक्षर 'आकार' हूँ और व्याकरण के समासों का द्वन्द्व समास हूँ। मैं शाश्वत काल हूँ और सृष्टाओं में ब्रह्मा हूँ।


10.34

मैं सर्वभक्षी मृत्यु हूँ और आगे भविष्य में होने वालों अस्तित्वों को उत्पन्न करने वाला मूल मैं ही हूँ। स्त्रियों के गुणों में मैं कीर्ति, समृद्धि, मधुर वाणी, स्मृति, बुद्धि, साहस और क्षमा हूँ।


10.35

सामवेद के गीतों में मुझे बृहत्साम और छन्दों में मुझे गायत्री मन्त्र समझो। मैं बारह मासों में मार्ग शीर्ष और ऋतुओं में पुष्प खिलाने वाली वसन्त ऋतु हूँ।


10.36

समस्त छलियों में मैं जुआ हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ। विजेताओं में विजय हूँ। संकल्पकर्ताओं का संकल्प और धर्मात्माओं का धर्म हूँ।


10.37

विभूति योग वृष्णिवंशियों में मैं कृष्ण और पाण्डवों में अर्जुन हूँ, ऋषियों में मैं वेदव्यास और महान विचारकों में शुक्राचार्य हूँ।


10.38

मैं अराजकता को रोकने वाले साधनों के बीच न्यायोचित दण्ड और विजय की आकांक्षा रखने वालों में उनकी उपयुक्त नीति हूँ। रहस्यों में मौन और बुद्धिमानों में उनका विवेक हूँ।


10.39

मैं सभी प्राणियों का जनक बीज हूँ। कोई भी चर या अचर मेरे बिना नहीं रह सकता।


10.40

हे शत्रु विजेता! मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अन्त नहीं है। मैंने जो तुमसे कहा यह मेरी अनन्त महिमा का संकेत मात्र है।


10.41

तुम जिसे सौंदर्य, ऐश्वर्य या तेज के रूप में देखते हो उसे मेरे से उत्पन्न किन्तु मेरे तेज का स्फुलिंग मानो।


10.42

हे अर्जुन! इस प्रकार के विस्तृत ज्ञान की क्या आवश्यकता हैं। केवल इतना समझ लो कि मैं अपने एक अंश मात्र से सकल सृष्टि में व्याप्त होकर उसे धारण करता हूँ।

Comments

Rated 0 out of 5 stars.
No ratings yet

Add a rating

© 2023 Nishit Kantha, Mumbai. The Site is conceived, designed & developed by Infinity Endeavours (Consultancy) Private Limited, Mumbai.

bottom of page